जब कोई नेशनल अवॉर्ड जीतने वाला निर्देशक और अभिनेता एक साथ आते हैं, तो उम्मीदें बढ़ जाती हैं। खासकर जब अभिनेता मनोज बाजपेयी हों। निर्देशक राम रेड्डी और मनोज बाजपेयी की ताज़ा फिल्म ‘जुगनुमा: द फैबल’ इसी उम्मीद के साथ बड़े पर्दे पर आई है। यह फिल्म पहले ही कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में सराहना और अवॉर्ड जीत चुकी है और अब भारतीय थिएटरों में रिलीज़ की गई है।
कहानी – 1989 का हिमालयी परिवेश
फिल्म की कहानी 1989 के दशक में हिमालय की पृष्ठभूमि पर आधारित है। पहाड़ों की खूबसूरती और प्राकृतिक वातावरण फिल्म का सबसे बड़ा आकर्षण है। कहानी के केंद्र में है देव (मनोज बाजपेयी) – एक अमीर व्यक्ति, जिसके फलों के कई एकड़ में फैले बागीचे हैं। देव अपनी पत्नी नंदिनी (प्रियंका बोस), बेटी वान्या (हिरल सिद्धू), बेटा जूजू (अवान पूकट) और दो कुत्तों के साथ बगीचों के बीच बने घर में सुकून भरी ज़िंदगी जीता है। देव का मैनेजर मोहन (दीपक डोबरियाल) बगीचों की देखभाल करता है। सबकुछ सामान्य चल रहा होता है, तभी रहस्यमयी घटनाएं शुरू होती हैं।
बगीचों में रहस्यमयी आग
एक दिन अचानक देव के बगीचों में आग लग जाती है। कई पेड़ जलकर राख हो जाते हैं। आग का सिलसिला बढ़ता जाता है लेकिन कारण समझ नहीं आता। देव को गांव वालों और फिर अपने मैनेजर मोहन पर शक होने लगता है। पुलिस तक की मदद ली जाती है। लेकिन रहस्य गहराता जाता है। क्या देव यह पता कर पाता है कि आग कौन लगा रहा है और क्यों? आग लगने के पीछे क्या रहस्य है? इसका जवाब फिल्म देखकर ही मिलता है।
फिल्म की शैली – धीमी लेकिन खूबसूरत
‘जुगनुमा’ को अलग तरह से गढ़ी गई खूबसूरत कहानी कहा जा सकता है। यह फिल्म लोककथाओं, परी कथाओं और पर्यावरणीय मुद्दों को साथ लाती है। 1 घंटा 59 मिनट की इस फिल्म की गति एक समान रहती है, जो कई दर्शकों को धीमी लग सकती है। लेकिन इसके दृश्यों की सिनेमैटोग्राफी, हिमालयी गांवों का असली चित्रण और लोक कलाकारों की मौजूदगी इसे खास बनाती है। सर्दी की सुबह, तारों भरी रात, पहाड़ी जीवन – इन सभी को फिल्म में बारीकी से दिखाया गया है, जिससे दर्शक खुद को उस माहौल में महसूस करते हैं।
अभिनय – मनोज बाजपेयी का साधारण लेकिन असरदार रोल
फिल्म का सबसे बड़ा सहारा मनोज बाजपेयी की अदाकारी है। हालांकि इस बार उनका किरदार भावनाओं के उतार-चढ़ाव से रहित है। वे पूरे फिल्म में शांत, संयमित और सोच में डूबे दिखाई देते हैं। बेटी वान्या की भूमिका निभाने वाली हिरल सिद्धू ने भी अच्छा काम किया है। उनके क्लोज़अप शॉट्स उनके किरदार की भावनाओं को बिना संवाद के बयां कर जाते हैं। दीपक डोबरियाल के पास इस बार ज्यादा करने के लिए नहीं था, लेकिन उन्होंने अपने हिस्से का काम सहजता से किया। तिलोत्तमा शोम को इतने छोटे रोल में देखना कई दर्शकों को खलेगा। हालांकि गांव के कलाकारों ने असलीपन से भरपूर अभिनय किया है।
कमियां – कहानी में कन्फ्यूजन और खिंचाव
फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है इसका कन्फ्यूजिंग नैरेटिव। कई बार दर्शक समझ नहीं पाते कि फिल्म कहना क्या चाहती है। कहानी का अंत भी उलझा हुआ लगता है। एडिटिंग के स्तर पर इसे छोटा किया जा सकता था। मनोज बाजपेयी, दीपक डोबरियाल और तिलोत्तमा शोम जैसे कलाकारों के साथ एक मजबूत कहानी और बनाई जा सकती थी। निसंदेह यह एक आर्ट फिल्म है – यह 100-200 करोड़ कमाने या मसाला एंटरटेनमेंट देने वाली फिल्म नहीं है।
देखें या न देखें?
अगर आप मनोज बाजपेयी के फैन हैं या आर्ट सिनेमा पसंद करते हैं, तो यह फिल्म आपके लिए है। यह पर्यावरण, लोककथाओं और मानव भावनाओं पर आधारित एक अलग अनुभव देती है। लेकिन अगर आप सस्पेंस, थ्रिलर या तेज़ रफ्तार फिल्म की उम्मीद कर रहे हैं, तो ‘जुगनुमा’ आपके लिए सही चुनाव नहीं है। यह थिएटर में आपके लिए महंगा सौदा साबित हो सकती है।