“तनाव… डिप्रेशन… एंग्जायटी…” ये शब्द अब किसी किताब के पन्नों तक सीमित नहीं रहे। ये हमारे आसपास हैं, हमारे साथ हैं। लेकिन जब बात होती है साइकोलॉजिस्ट के पास जाने की तो लोग चुप हो जाते हैं। क्यों? क्योंकि समाज क्या कहेगा…? लोग पागल समझेंगे! आज हम बात करेंगे भारत में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर फैली इस चुप्पी की।
आंकड़े और सच्चाई-
भारत में हर आठवां व्यक्ति किसी न किसी मानसिक बीमारी से जूझ रहा है, लेकिन नेशनल हेल्थ प्रोफाइल के अनुसार, हर साल इलाज लेने वालों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है। वजह? शर्म और डर!
‘पागल’ शब्द का डर-
हमारे समाज में ‘पागल’ शब्द अब भी गाली की तरह इस्तेमाल होता है अगर किसी ने कहा कि वो साइकोलॉजिस्ट के पास गया है, तो लोग फौरन उसके दिमागी संतुलन पर सवाल उठाते हैं। समाज से पहले हमारे घर वाले ही समझने की जगह प्रश्न उठाने लगते हैं। इस अप्रोच को हमें बदलने की ज़रुरत है जिसकी शुरुआत खुद से ही करनी होगी।

बदलती सोच, लेकिन रफ्तार धीमी-
शहरों में अब धीरे-धीरे लोग थेरेपी को अपनाने लगे हैं, लेकिन गांव और कस्बों में मानसिक स्वास्थ्य आज भी अंधविश्वास और गलतफहमियों की जकड़ में है। लोग बाबाओं के पास जाते हैं लेकिन डॉक्टर के पास नहीं।
एक्सपर्ट की राय-
मनोवैज्ञानिकों का कहना है मानसिक स्वास्थ्य भी शारीरिक बीमारी की तरह है। इसे छिपाने की नहीं, समझने की ज़रूरत है। अक्सर लोग मानसिक परेशानी को हल्के में लेते हैं। एक स्टडी के अनुसार मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति के अंदर सुसाइडल टेंडेंसी अधिक रहती है। तो अगर आपको मानसिक परेशानी फील हो तो इसे छुपाएं नहीं बल्कि इसपर खुल कर बात करें।
डिप्रेशन हो या दिल टूटने का दर्द मन भी बीमार होता है, इलाज चाहता है लेकिन सबसे बड़ा इलाज है चुप्पी तोड़ना। आइए, हम सब मिलकर इस डर को हराएं और मानसिक स्वास्थ्य को सामान्य बनाएं। क्योंकि पागलपन साइकोलॉजिस्ट के पास जाना नहीं, ज़रूरत पड़ने पर भी चुप रह जाना है।