जब बात ‘महाभारत’ के टीवी श्रृंखला में श्रीकृष्ण के किरदार की होती है, तो सबसे पहले नाम उभरता है—नितीश भारद्वाज। उनके मंचीय अभिनय ने सिर्फ एक भूमिका नहीं, बल्कि करोड़ों दर्शकों के मन में कृष्ण की छवि को जगा दिया। हाल ही में अमर उजाला डिजिटल को दिए एक विशेष इंटरव्यू में, जन्माष्टमी के अवसर पर नितीश ने अपने निजी अनुभवों, आस्था और सामाजिक दृष्टिकोण को साझा किया।
असली कृष्ण हमें अपने अंदर ही मिलते हैं
नितीश शर्मा ने स्पष्ट किया कि उनके लिए जन्माष्टमी केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि आत्मचिंतन का दिन है। उन्होंने बताया: “मैं जन्माष्टमी पर ध्यान करता हूँ, गुरु से मिला मंत्र जाप करता हूँ और आत्मचिंतन करता हूँ। पूजा-पाठ जरूरी हैं, लेकिन असली कृष्ण हमें अपने अंदर ही मिलते हैं।” इसके ज़रिए उन्होंने दर्शाया कि भक्ति का अर्थ सिर्फ बाहरी रस्मो-रिवाज नहीं, बल्कि आत्मा की खोज है।
पहले दही‑हांडी समाज को जोड़ता था; अब दिखावा ही रह गया
बचपन की यादों को ताज़ा करते हुए नितीश ने बताया कि दही‑हांडी कभी सिर्फ उत्सव नहीं था, बल्कि समाज के सभी वर्गों को एक सूत्र में बाँधकर जोड़ता था। आज उस आयोजन में “दिखावा और पैसा” ज़्यादा हो चला है। आज लोग पहले से ज़्यादा श्रद्धा से कृष्ण की पूजा कर रहे हैं हाल की पीढ़ी पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि “माता‑पिता छोटे बच्चों को मेरे नाटक ‘चक्रव्यूह’ में लिए आते हैं—5‑10 साल के बच्चे कृष्ण और धर्म को ठीक से समझने की कोशिश करते हैं; यह भरोसा जगाता है कि आस्था अभी भी लोगों के दिलों में जिंदा है।”
कृष्ण की भूमिका आत्मा को छूने वाला अनुभव थी
‘महाभारत’ में कृष्ण का चरित्र निभाना नितीश के लिए केवल अभिनय भर नहीं था—यह आत्मा की अनुभूति थी। उन्होंने स्वीकार किया कि जब लोग आपको कृष्ण कहते हैं, तो वह भूमिका आपके अंदर उतर जाती है। गीता और कृष्ण उनके लिए अब सिर्फ कथा नहीं, बल्कि जीवन जीने का तरीका बन चुके हैं।
भारत की पुरानी पहचान को फिर से जीवित करें
आज के समय में गीता का महत्व क्या है, इस सवाल पर उन्होंने कहा: “हमें योग्यता बढ़ानी चाहिए, ईमानदारी से काम करना चाहिए और समाज-देश के लिए सोचना चाहिए। छोटे‑छोटे स्वार्थ से ऊपर उठिए, जातिवाद को घर की चौखट तक सीमित रखिए। अब समय है कि भारत की पुरानी पहचान और ताकत को दोबारा जीवित किया जाए।”
बच्चों को गीता का रास्ता दिखाइए
युवा पीढ़ी को संदेश देते हुए नितीश ने कहा कि गीता कोई धार्मिक किताब नहीं, बल्कि यह जीवन का विज्ञान है। यह हमें हिम्मत, धैर्य, और सही निर्णय लेने की शक्ति प्रदान करती है।
“अगर मौका मिले, मैं कृष्ण को पहले से बेहतर निभाऊँगा”
क्या फिर से कृष्ण का रोल निभाना चाहेंगे? इस सवाल पर नितीश मुस्कुराकर बोले: “क्यों नहीं? अब मेरी समझ और गहरी हो गई है। मौका मिले तो मैं कृष्ण को पहले से बेहतर तरीके से निभा सकता हूँ। मेरी मां ने ध्यान में मुझे कृष्ण के रूप में देखा”
उनकी सबसे प्रेममयी याद उनके मां से जुड़ी है:
“मेरी मां ने ध्यान में मुझे कृष्ण के रूप में देखा। यह मेरी शक्ति नहीं, यह असली कृष्ण की लीला थी। उन्होंने महसूस कराया कि सच्चा भगवान मूर्ति में नहीं, बल्कि निराकार रूप में मिलता है।” इस अनुभव को वे अपने जीवन का सबसे पवित्र क्षण कहते हैं। असली जन्माष्टमी तब होती है जब हम अंदर कृष्ण को पा लें नितीश ने जन्माष्टमी के असली सार को सबसे सुंदर अंदाज़ में समझाया: कृष्ण सिर्फ पूजा के लिए नहीं हैं, वे हमारी प्रेरणा और हमारी सोच हैं। असली जन्माष्टमी तब होती है जब हम अपने अंदर कृष्ण को पा लें।