“एक ऐसी फ़िल्म जिसे बनने में लगे 14 साल… एक ऐसी अदाकारा, जो खुद अपने किरदार की तरह टूटती रही… और एक ऐसा सिनेमा, जिसने हिंदुस्तानी फ़िल्मों की तहज़ीब को परदे पर जिंदा कर दिया। जी हां, हम बात कर रहे हैं ‘पाकीज़ा’ की… मीना कुमारी का आखिरी मगर सबसे यादगार किरदार। आइए आपको ले चलते हैं उस हसीन दौर में, जहां फिल्में दिल से बनती थीं और दिल को छू जाती थीं…”
फिल्म की कहानी और माहौल-
साल 1972 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘पाकीज़ा’ लेकिन इसकी शुरुआत हुई थी 1958 में हुई थी। कमाल अमरोही की यह फिल्म एक तवायफ की कहानी थी, जो मोहब्बत और इज्जत दोनों के लिए तरसती है। कहानी थी साहिबजान यानी मीना कुमारी की जो एक कोठे में पली-बढ़ी मगर सपने एक शरीफ दुनिया के देखती है। फिल्म का हर फ्रेम, हर डायलॉग, एक शायरी की तरह लगता है।
मीना कुमारी का व्यक्तिगत संघर्ष-
पाकीज़ा सिर्फ एक फिल्म नहीं थी ये मीना कुमारी की जिंदगी की आखिरी दास्तान भी बन गई। जब शूटिंग शुरू हुई तब मीना और कमाल अमरोही शादीशुदा थे। लेकिन फिल्म पूरी होने तक उनका रिश्ता भी टूट गया। फिल्म बंद हो गई थी फिर सालों बाद बीमारी से जूझती मीना ने इसे पूरा किया। कहते हैं आखिरी सीन में जब वो पर्दे के पीछे जाती हैं, तो असल में वो जिंदगी के पर्दे से बाहर चली गई थीं।

संगीत-
‘चलते-चलते यूं ही कोई मिल गया था…..’, ‘इन्ही लोगों ने…..’ और ‘ठाढ़े रहियो’ जैसे गाने आज भी लोगों की जुबान पर हैं। गुलाम मोहम्मद का संगीत और नौशाद की मदद से फिल्म का म्यूज़िक अमर हो गया। मुज़फ्फर अली ने इस फिल्म की तुलना ताजमहल से की थी ‘एक नायाब नज़ीर, जो सिर्फ इश्क़ में ही बन सकता है।’

तोड़े सभी रिकॉर्ड-
पाकीज़ा ने रिलीज़ के बाद दर्शकों के दिल जीत लिए। फिल्म सुपरहिट रही मगर इसकी हीरोइन उसे देखने के दो महीने बाद ही दुनिया छोड़ गईं। पाकीज़ा आज भी इंडियन सिनेमा की सबसे खूबसूरत फिल्मों में गिनी जाती है। ये सिर्फ एक फिल्म नहीं, मीना कुमारी की आत्मा है जो आज भी हर सीन में सांस लेती है। फिल्म का बजट लगभग 1.25 करोड़ रुपये था लेकिन इसने बॉक्स ऑफिस पर लगभग 6 करोड़ रुपये कमाए, जो उस समय के लिए एक बड़ी सफलता थी।
“कहते हैं कुछ कहानियां पूरी होकर भी अधूरी रह जाती हैं… ‘पाकीज़ा’ भी वैसी ही एक कहानी है, जो मीना कुमारी के दर्द से बुनी गई और हर फ्रेम में अमर हो गई। ऐसा सिनेमा, जो वक्त की रेत पर अपने नक्श छोड़ गया।”