इस साल जब दर्शकों ने ‘हाउसफुल 5’ जैसी हल्की-फुल्की कॉमेडी को जैसे-तैसे झेल ही लिया था, तो ‘सन ऑफ सरदार 2’ देखने की हिम्मत भी जुटा ही ली। लेकिन इस फिल्म को देखते वक्त तय कर लिया था कि एक सख्त रिव्यूअर नहीं, बल्कि एक आम दर्शक बनकर ही इसे देखा जाएगा। दर्शक के तौर पर जाने का मतलब था – दिमाग घर पर रखकर फिल्म को एंजॉय करना। पर क्या वाकई फिल्म ने इतना भी मौका दिया कि हंसा सके या फिर वो समय बर्बादी का एक और नाम बन गई?
फिल्म की शुरुआत: उम्मीद की लौ या बोरियत की शुरुआत?
‘सन ऑफ सरदार 2’ की शुरुआत पहले 15 मिनट तक बेहद धीमी रही। कॉमेडी फिल्म के नाम पर जो पहली उम्मीद होती है – वह होती है शुरुआत में ही कुछ फनी, कुछ पागलपन भरा देखने को मिले। मगर अफसोस! इतने लंबे इंट्रोडक्शन और स्लो बिल्डअप के बाद भी कोई ठोस कॉमेडी पंच नहीं आया। हालांकि इसके बाद बीच-बीच में कॉमेडी के कुछ सीन जरूर आए, जिनमें से कुछ ने थोड़ी मुस्कान दी तो कुछ ने सिर पकड़ने को मजबूर कर दिया।
फूहड़ता बनाम फनी – कहाँ रह गई बैलेंसिंग?
कॉमेडी के नाम पर कभी डबल मीनिंग जोक्स, तो कभी जबरदस्ती की एक्टिंग – इन सबने फिल्म की क्वालिटी को गिरा दिया।
कुछ सीन तो इतने ज़बरदस्ती हंसाने की कोशिश करते हैं कि आप खुद सोचने लगते हैं – “क्या हमें बेवकूफ समझा जा रहा है?”
- जब फिल्म सिर्फ “लाउड एक्टिंग + अजीबो-गरीब साउंड इफेक्ट्स = कॉमेडी” का फॉर्मूला अपना ले, तब नतीजा कुछ ऐसा ही होता है।
- एक्टर्स का एनर्जी लेवल हाई था, मगर स्क्रिप्ट और डायलॉग्स वहीं ढीले रह गए।
- फिल्म का हीरो हर 10 मिनट में एक पंचलाइन मारता है, जो ज़्यादातर ‘पंच’ से ज़्यादा ‘सपाट’ लगती है।
परफॉर्मेंस: एक्टिंग बचाए या फिल्म को डुबाए?
अजय देवगन की मौजूदगी जरूर है, लेकिन लगता है जैसे उन्होंने सिर्फ कैमियो टाइप रोल किया हो। उनके किरदार में न वो वजन है, न ही उनकी क्लासिक टाइमिंग। बाकी कलाकारों ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की, लेकिन जब स्क्रिप्ट ही कमजोर हो, तो अच्छे एक्टिंग के बावजूद भी कुछ असर नहीं होता। संजय मिश्रा और जॉनी लीवर जैसे सीनियर कलाकारों से उम्मीदें थी, लेकिन उन्हें भी कमज़ोर डायलॉग्स और बेमतलब सीन्स में फंसाकर रख दिया गया।
कहानी और निर्देशन: क्या है स्क्रिप्ट में दम?
कहानी एक सिंपल से प्लॉट पर टिकी है – पारिवारिक दुश्मनी, प्यार, धोखा, और कॉमेडी का तड़का। लेकिन जब इन सबको जोड़ने के लिए स्क्रिप्ट में मज़बूती नहीं हो, तब फिल्म बिखर जाती है। निर्देशन में नयापन नहीं दिखता। ऐसा लगता है जैसे पुराने टाइम की कॉमेडी फिल्मों को आज के माहौल में जबरदस्ती फिट करने की कोशिश की गई है। कैमरा वर्क और एडिटिंग भी औसत ही रही।
फाइनल वर्डिक्ट: देखना चाहिए या नहीं?
अगर आप वाकई सिर्फ टाइम पास के लिए कुछ भी देखने को तैयार हैं, और आपके पास कोई और ऑप्शन नहीं है – तो ‘सन ऑफ सरदार 2’ को एक मौका दे सकते हैं, लेकिन…
दर्शक बनकर भी आप ज्यादा देर तक इसे झेल नहीं पाएंगे।
और जैसे ही आप अपने अंदर के ‘रिव्यूअर’ को जगाते हैं – फिल्म की खामियां इतनी तेजी से दिखने लगती हैं कि मज़ा किरकिरा हो जाता है।